अंधकार को जन्म देता सोशल मीडिया

सोशल मीडिया ( सामाजिक संजाल स्थल ) इंटरनेट का एक अभिन्न अंग है जिसका उपयोग दुनिया की एक बड़ी आबादी प्रतिदिन अपने को, अपनों और किसी अन्य स्थान पर बैठे लोगों से जोड़ने के लिए करती है। एक ऑनलाइन मंच जो कई मायनों में सबको एक साथ ले आया । यह मीडिया का एक नया और आधुनिक रूप है जिसने सूचना के क्षेत्र में क्रांति लाने का काम किया। इस क्रांति ने एक तरफ चिराग बनकर अंधकार को दूर करने का प्रयास किया, जिसने कई मुहीम और कई आंदोलनों को आगे बढ़ाया। जानकारी को तेजी से एक समय पर एक बड़ी आबादी के लिए उपलब्ध करवाने का काम इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मस द्वारा किया गया।

परंतु इस सूचना क्रांति के साथ जिस तरह की दृश्यता को हमारे सामने पेश किया गया है क्या सचमुच वह पूर्ण हैं। यह एक मुख्य प्रश्न है जिस पर गंभीर चिंतन की ज़रूरत है। अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है ऑब्स्क्योरिटी ( obscurity) जिसका हिंदी अर्थ है अंधकार या अस्पष्टता। एक तरफ सूचनाओं का विशाल भंडार उपयोगकर्ता के पास है वहीं दूसरी तरफ जिस तरह की ओवर विजिबिलिटी ( अति दृश्यता) जो हमारे सामने है वह अपने आप ही अस्पष्टता की स्थिति को जन्म देती है।

नए मीडिया के उद्भव के साथ ही संपर्कों के नए रूपों का भी जन्म हुआ, जिसमें दृश्यता या दिखने के कई तरीके शामिल रहे हैं। दृश्यता या दिखने की इस नई संस्कृति ने शक्ति की अवधारणा को कई नाटकीय अंदाज में बदला और नियंत्रण की नई व्याख्या हुई जिसमें दृश्यता या दिखाना ही नियंत्रण या शक्ति है।

दिखने की परंपरा ने जहां प्राइवेसी या निजता को तो खत्म किया ही, साथ ही साथ एक तरह से संघर्ष की स्थिति को भी जन्म दिया और आज के समय का यह मूल संघर्ष है दृश्यता का ( दिखने का) जिस तरह आज सूचनाओं का वेग पहले की अपेक्षा अधिक गहन है और साथ में सूचना तंत्र के इस व्यापक फलक में एक व्यक्ति के खुद के पास सूचना का भंडार अधिक मात्रा में है, ऐसे में पल पल बदलते सूचनाओं के इस भंवर में अपनी जगह को स्थाई रख पाना और दिख पाना एक चुनौती के रूप में हमारे सामने आता है। यह दिख पाने का संघर्ष जो पहले राजनीति या फिल्म से जुड़े कलाकारों की समस्या थी, आज वह सोशल मीडिया जैसे माध्यम जहां हर व्यक्ति अपनी एक अलग पहचान लिए मौजूद है, उन सबके मन मस्तिष्क में मनोवैज्ञानिक तौर पर घर कर गई है।

इन सब माध्यमों से जैसे हर व्यक्ति दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपनी एक छवि का निर्माण कर रहा है और साथ ही प्रतीकात्मक जानकारियों का इस्तेमाल कर रहा है ताकि वह अपने द्वारा गढ़ी गई इस छवि को इन सामाजिक पटल पर स्थापित कर सके। इस गढ़ी हुई छवि पर देखने वाला यह विचार बनाता है की असल जीवन में भी व्यक्ति ऐसा ही है पर असल में ऐसा होता नहीं। यह दृश्यता या छवियां जो हमारे सामने रखी जा रही है वह अर्धसत्य है जिसका रूप खुद में संदिग्ध है।

सामाजिक पटल पर छवि निर्माण की होड़ में जब कोई पीछे रह जाता है, तो उसके भीतर एक अस्पष्टता और अंधकार की स्थिति पैदा होती है जो कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं और अंत में आत्महत्या जैसे गंभीर परिणामों की वजह बनती है। इस तरह की समस्याएं हमारे आस पास मिल जायेंगी।

जहां व्यक्ति अपनी छवि को कैसे ना कैसे समाज में एक जगह दिलाना चाहता है, वह यह भूल जाता है कि असल में जो दिख रहा है उसके पीछे भी कितना कुछ है जिसे वह देख नही पाता या उसे वह दिखाया ही नही जाता है, जिसे समझना ज़रूरी है, असल ज़िंदगी और सोशल मीडिया के माध्यम से निर्माण की गई इस छवि ने व्यक्ति को दोहरी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां वह रील और रियल के बीच कहीं अस्पष्टता या ऑब्स्क्योरिटी की स्थिति में है।

सोशल मीडिया एक उत्प्रेरक की भूमिका में काम करता है और यह एक महत्वपूर्ण यंत्र है, सबके ध्यान को आकर्षित करने के लिए है, यह हम सबको समझने की ज़रूरत है कि इसके द्वारा निर्माण की गई छवियां या दृश्यता असल जीवन के दृश्यों से परे हैं, इसे जीवन मान लेना हमारी बड़ी भूल है, एक यंत्र को एक यंत्र के तौर पर ही हमें इस्तेमाल करना चाहिए ना कि उसे जीवन बना लेना चाहिए ।

प्रियंका
शोधार्थी (दिल्ली विश्वविद्यालय)

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